Saturday 5 March 2016

विड़ंबना

ऐ मेरे शरीक़-ए-हयात, यह कैसी विड़ंबना है?
तू ही दर्द है और तू ही दवा है! तेरा ही ग़म है और तेरा ही सहारा है
मेरी ज़िन्दगी की नूर तू है और अंधेरा भी तूने ही भरा है!
मैं मैं नहीं तू तू नहीं, मैं और तू मिल हम बना
हम जिऐ, हम चले; हम हंसे, हम रोये; हम बोये, हम पाले;
क्षितिज पर गोचर इन्द्रधनुश के रंगों को चुराकर
हमने अपना छोटासा आशियां सजाया
अचानक यह कैसी गाज गिरी, सुन्दर आशियां राख बनगया
मुड़कर देखा चारों ओर, तू नहीं, तेरा साया भी नहीं
तेरे बग़ैर मैं अब मैं नहीं, हम अब हम नहीं, शून्य बनगया है.
वह नदी, और नदी किनारे हरियाली
वह आसमान, और आसमान पर उड़ता बादल
वह रास्ता, और रासते पर चल्ती बैल गाड़ी,
सांस के लिये हांफता वह बैल,
हलकीसी टन-टन करती उस्के गले की घंटियां
सब कुछ सलामत है अपनी अपनी जगह
पर तू नहीं, तेरा वजूद नहीं, तेरा साया नहीं
बस रहगया मैं, खाली, खोक्ला, निराश, और उदास
एक बेरंग और दिशाहीन जीवन को ढोतेहुऐ
ख़ुश्क आंखों में पुनर्मिलन की आशा लिये, तेरे बुलावे के इन्तज़ार में
इस विड़ंबना का मतलब समझने की कोशिश कर रहा हूँ कि


तू ही दर्द है और तू ही दवा है? तेरा ही ग़म है और तेरा ही सहारा है?